![]() |
अभिषेक भारत |
पिछले कुछ दशकों में गजब का नरेटिव सेट किया गया है। गांधीजी के इंतकाल के बाद एक धड़ा, एक लेखकीय तबका, एक तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने गांधीजी को केवल कमजोरी, निस्सहाय से जोड़कर प्रचारित किया है।
वे अपनी लेखनी में, अपने वक्तव्य में ऐसा बार-बार कहते रहे। उनके अनुसार, 'महात्मा गांधी का मतलब चुप रह जाना, महात्मा गांधी का मतलब खामोश रहना, महात्मा गांधी का मतलब कुछ ना करना, महात्मा गांधी का मतलब थप्पड़ खाना, महात्मा गांधी का मतलब कायर हो जाना है।'
कई बार यह सहानुभूति पाने के लिए ही किया जाता है। लेकिन अधिकांशतः इसके पीछे कुटिलता पैर जमाए होती है। इसमें इंसानी मनोविज्ञान साथ देता है। अव्वल तो मनुष्य जैविकी तौर पर एक भावुक प्राणी ही है, उसकी मनोदशा ही ऐसी है कि वह आवरण मसलन श्वेत, बलिष्ठ, चमकदार देहाकृति को ही ताकत मान लेता है, और सादगी, अपरिग्रह शांति को कमजोरी। जबकि शांति उसे भी चाहिए, उसका लक्ष्य ही शांति पाना होता है। यह भी सत्य है कि शांति प्रेम से ही जन्मती है।
गांधीजी हिंसक माहौल में भी शांति की अभिव्यक्ति करते थे, वे उस भयावह जगह पर भी निर्भीकता लिए जाते, क्योंकि वह सच्चे अर्थों में सभी के दिलों में शांति जगाना चाहते थे। घोर हिंसक भी मन के किसी कोने में यह जरूर सोच रखता था कि गांधी विघ्नहर्ता हैं। वही आएंगे, समझाएंगे ना मानने पर भूख हड़ताल कर देंगे, किंतु सब कुछ ठीक कर देंगे। विद्रोही, हिंसक, नफ़रती भी यह जानते थे कि एकमात्र गांधी ही हैं जो सत्याग्रह कर सकते हैं।
विश्वास, प्रेम की यह आस्था ही गांधी की पहचान बन गई। भला कारयों के लिए कोई ऐसा सोचता है ! कमजोर अपनी सुरक्षा का इंतजाम करने में खर्च हो जाता है, एक सत्याग्रही ही निर्भीकता से सातत्य प्रवाहमान होता है।
असुरक्षा का प्रसार होता जा रहा है, शब्दों तक में घबराहट स्पष्ट दिख रही है। जाने क्यों दूसरे से भय हो रहा है, जाने क्यों याचना का सैलाब उमड़ रहा है ! यह कायरता हमारे अंदर ही है जो अनुकूल परिस्थितियां पाते ही उजागर हो जा रहा है। जैसे मसल फुलाए बॉडीबिल्डर दिल से कमजोर हो तो उसका कातरपन उसके समेत उस पर निर्भर सभी को डूबो देगा, उसका बलिष्ठ शरीर उसके विशेष काम नहीं आ पाएगा। निर्भीकता तो अंतर का गुण है।
जो भी इत्मीनान से गांधीजी को समझेगा, उन्हें यह विश्वास हो ही जाएगा कि गांधीजी क्या हैं। वह अच्छी तरीके से समझ जाएंगे कि उनको कायर, कमजोर कहने वाली बातें मिथ्या और प्रोपेगेंडा है, एक षड्यंत्र है। गांधीजी के द्वारा भारतीय जनमानस को कमजोर, हताश, कायर बना देने की उनकी कुत्सित व घृणित षड्यंत्र उनके बातों, कहनों में छिपी हुई है। इसे कोई भी समझदार व्यक्ति जो भारत भूमि से प्यार करता है, अच्छी तरह से समझ सकता है।
गांधीजी हमेशा भारत को मजबूत, सशक्त करना चाहते रहे, बल्कि व्यक्ति उत्थान में भी गहरे विश्वास करते रहे। ऐसा करने के लिए जी जान से मेहनत भी करते रहे। ना जाने कितनी ही बार उन्होंने कहा भी, "अहिंसा कायरों के लिए नहीं है, अहिंसा वीरों की शोभा है, वीरों का आभूषण है।"
'श्रीमद्भागवत गीता' को अपना प्रिय पुस्तक कहने वाला वह महात्मा जो हर बार निराशा के क्षण में श्रीमद्भगवद्गीता के पास जाता और वहां सार्थक मार्ग प्राप्त कर लेता, वह महात्मा जिसने भगवान राम को अपना आराध्य कहा, रामराज्य की चाह की, उसका सपना देखा, भारत भूमि को पुनः भगवान राम के आदर्श पर चलने के लिए प्रयत्नशील रहा भला वह कमजोर, कायर कैसे हो सकता है।
कुछ उदारवादी बौद्धिक तबके ने भी उस षड्यंत्र में अपना हाथ दिया, जिसने भारत को लंबे समय से कमजोर, नकारा, भ्रष्ट, बेकार, अराष्ट्र सिद्ध करने में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है।
भला क्या भगवान राम कमजोर हैं, कायर हैं, या भगवान श्रीकृष्ण कमजोर, कायर हैं ! तो उनका भक्त, उपासक कमजोर, कायर क्योंकर होने लगा! भारत भूमि ने कभी कायरता को धारण नहीं किया तो भला गांधीजी क्यों कायरता को स्वीकारते।
गांधी का मतलब मजबूरी नहीं होता, गांधी का मतलब मजबूती होता है। महात्मा गांधीजी अपने पूरे जीवन में मजबूत काम करते रहे।
लोडेड बंदूक के सामने अपना उघड़ा, नंगा सीना सामने कर देना क्या यह कायरता है! तो फिर शूरवीरता क्या होती है!
जीवन भर अपने हिंदुत्व को ना छोड़ना, वैष्णव बने रहना, गौ-भक्ती करना, भारत भूमि को शीर्ष पर रखना, रामराज्य की चाह करना, जीवन भर धर्म सम्मत कार्य करना, अंत समय में भी हे राम! कहना। क्या यह कायरता है ! तो फिर शूरवीरता क्या है !
स्वालंबन, अपरिग्रह, करुणा, प्रेम वहीं हो सकते हैं, जहां अभय हो। गांधीजी इसी अभय के जीते जागते हाड़-पिंड थे। सभी मजहबों में अहिंसा एक आदर्श है। लेकिन मजहबों को सुरक्षित रखने के लिए हिंसा किया जाता है, तो क्या उन लड़ाकों को निर्भीक कहा जाए ! नहीं, वह तो डरे हुए हैं, उन्हें स्वयं और स्वयं के मजहब की सुरक्षा का डर है, और डरा हुआ कायर ही होता है।
गांधीजी सदैव नैतिक सदाचरण का अनुपालन करते रहे। वे अनुकूल नैतिकता के आगे घुटने नहीं टेके। वह अगर राज्य की हिंसा की आलोचना करते हैं तो क्रांतिकारियों की हिंसा को भी जायज नहीं ठहराते। उसकी भी आलोचना करते हैं जबकि वह भलीभांति जानते थे कि उस तत्कालीन परिस्थितियों में उनका जमकर विरोध होगा और हुआ भी फ़िर भी वह सच कहने से पीछे नहीं हटे। ख़ुद को सनातनी हिंदू कहने वाले महात्मा गांधी ने जब बुराई देखी तो उसकी भी आलोचना की। वे सदैव मानते थे यदि कोई भी धर्म बुनियादी मानवीय मूल्यों का हितैषी नहीं हो तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
11 जून 1947 को एक पत्र के जवाब में गांधीजी लिखते हैं, "छिपकर सरकारी इमारतों को आग लगाने, तारों को काट डालना इन बातों से क्या समानता आने वाली है, और जो नुकसान होता है वह जनता के ही पैसे का है न! छिपकर दूसरों का नुकसान पहुंचाना नामर्दगी, जंगलीपन और कायरता का सूचक है।"
हिंसा करना तो बहुत सरल है। तुरंत किसी का कत्ल कर दो, किसी को गाली दे दो, किसी का नुकसान कर दो, निसंदेह ऐसा किया जा सकता है और ऐसा होता भी है। किंतु इसमें भला न्याय व प्रेम कहां ! मंदिर के परिसर से चप्पल चुराने का सिलसिला तब तक नहीं रुकेगा, जब तक की आखिरी में बचा व्यक्ति नंगे पांव ना जाये। लेकिन ख़ुद परेशानी सहने के बावजूद दूसरे की भलाई की कामना करना सबके वश का नहीं है, इसे तो कोई निर्भीक व्यक्ति ही कर सकता है। और यही निर्भीकता महात्माओं को रचती है।
महात्मा गांधी के जीवन को बारीकी से देखेंगे तो उनके निर्भीकता को सहजता से समझ पाएंगे। उनकी आत्मकथा पढ़िए, उनके लेखों को पढ़िए,उनके कामों का विश्लेषण करिए, मूल्यांकन करिए उन परिस्थितियों का जिसमें गांधीजी थे और उनके क्रियाकलापों को बारीकी से परखिए, फ़िर अपने दिल से पूछिए, क्या गांधी कमजोर थे?
"अहिंसा प्रचंड शस्त्र है उसमें परम पुरुषार्थ है वह भीरु से दूर-दूर भागती है। वह वीर पुरुष की शोभा है, उसका सर्वस्व है। यह नीरस, जड़ पदार्थ नहीं है। यह चेतनमय है। यह आत्मा का विशेष गुण है इसीलिए इसका वर्णन परम धर्म के रूप में किया गया है।"
--- गांधीजी/ नवजीवन , १३/९/१९२८
इसी गांधी कथन से विराम लेता हूं।
~ अभिषेक भारत